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बाला जी आप शायद बहुत ही विरले और अत्यधिक विशेषज्ञता वाले अनुवाद की बात कर रहे हैं। आप कह रहे हैं कि इनकी शब्दावली नवीनतम अनुसंधान से तैयार की गई होती है। किसी भी हिंदी शब्दकोश में वे शब्द नहीं मिलते। फिर आप कर रहे हैं कि ऐसे में अनुवादक को उपलब्ध शब्दकोशों से ही शब्द छांटने पड़ेंगे। फिर कहां से छांटेंगे जब किसी शब्दकोश में हैं ही नहीं? ऐसे में सही शब्दावली तो वैसे भी नदारद है। यहां चर्चा एक आम आदमी के लिए लक्षित अनुवाद में उन हिंदी शब्दों के इस्तेमाल पर है जो कठिन और अप्रचलित हैं, बेशक शुद्ध हैं, कुछ विशेष शब्दकोशों से लिए जाते हैं, और, जिन्हें सरल शब्दों में समझाया जा सकता है और/अथवा लिप्यंतरण बेहतर विकल्प हो। अब जो स्रोत या मूलपाठ मेरे पल्ले ही नहीं पड़ेगा, जिसके शब्द किसी शब्दकोश में भी नहीं मिलेंगे, उसके अनुवाद के साथ मैं कैसे न्याय कर सकता हूं? क्या यह अत्यधिक स्पेशलाइजेशन से जुड़ा मामला ज्यादा नहीं लगता? ऐसे मामलों में तो मैं बेढंगा अनुवाद करने के बजाए साफ हाथ खड़े कर देता हूं। हो सकता है दूसरा कोई मुझसे बेहतर कर दे, या डॉक्टरों की मदद से उसे कराया जाए या क्लाइंट स्थिति को देखकर उसे केवल अंग्रेजी में ही रखने का फैसला कर दे।
अनुवाद संदर्भ के अनुसार होना चाहिए, यही मैं कहता आ रहा हूं। संदर्भ के अनुसार सरलीकरण कोई अतिरेक नहीं है। संदर्भ के अनुसार क्लाइन्ट इसकी मांग और अपेक्षा करते हैं और निश्चय ही यह अप्रचलित शब्दों के इस्तेमाल की तुलना में अधिक उद्देश्यपूर्ण है। कम पढ़े लिखे लोग ऐसे शब्दों के भंडार में पीछे नहीं हों जिन्हें अनुवादक भी समझ न पाएं, इससे मैं सहमत नहीं हूं। दरअसल, ऐसे शब्द अधिकांशतः अनुवादक भी बिना संदर्भ जाने शायद ही समझ पाएं। शहरी मध्यवर्ग के पास शब्द भंडार कम होता है यह सही है या नहीं, बिना आधार मैं नहीं कह सकता। यदि यह सही भी है तो भी यह एक बहुत बड़ा उपभोक्ता वर्ग है जिसे लक्षित कर अनुवाद कराए जाते हैं। और यदि इतने बड़े उपभोक्ता वर्ग का शब्द भंडार कम होता है तो उनके लिए सरल अनुवाद और भी न्यायोचित है। जो लिंक आपने दिया माफ करें उसे पढ़ने के लिए अभी मेरे पास समय नहीं है। समय मिला तो जरूर पढ़ूंगा।
यदि स्रोत सरल भाषा में नहीं हो, अनुवाद कैसे सरल भाषा में हो सकता है? दवाओं के सहमति अनुबंध में जो पाठ रहता है, वह स्टेट ऑफ द आर्ट दवा अनुसंधान से संबंधित पाठ होता है, यानी दवा क्षेत्र की अद्यतन शब्दवली उसमें प्रयोग होती है। किसी भी हिंदी शब्द कोश में वे शब्द नहीं मिलते। ये शब्द जिस अवधाराणा को व्यक्त करते हैं, वह भी स्रोत पाठ से स्पष्ट नहीं होता। ऐसे में अनुवादक कहाँ से इनके लिए सरल शब्द लेकर आएगा? उसे उपलब्ध शब्दकोशों से ही शब्द छाँटने पड़ेंगे। यहाँ झगड़ा अनुवाद को सरल रखने से नहीं है, बल्कि उसकी व्यावहारिकता से है। कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा कि अनुवाद यथासंभव सरल रहना चाहिए। पर जब स्रोत विषय सरल नहीं हो, तो अनुवाद में वह सरल हो जाएगा, इसकी कल्पना करना मिथ्या धारणा है। इसके अलावा अँग्रेज़ी और हिंदी शब्द विकास के अलग-अलग स्तरों पर हैं। पहले अँग्रेज़ी में अवधारणाएँ विकसित होती हैं, उनके लिए शब्द बनते हैं, और फिर अन्य भाषाओं में वे फैलते हैं। पर अनुवादक का सामना ऐसे पाठ से होता है जो अँग्रेज़ी के लिए भी नया होता है... तो अनुवादक के सामने ये सब समस्याएँ आती हैं। यह कह देना आसान है कि अनुवाद को सरल रखो, पर व्यावहारिक रूप से यह कई बार संभव नहीं होता है। ऐसे में अनुवादक समझौता ही कर सकता है, और हर अनुवादक का समझौता अलग प्रकार का हो सकता है।
सब कुछ संदर्भ पर निर्भर करता है। निश्चित ही क्रीम-पाउडर से लेकर मार्केट सर्वे तक के अनुवाद की भाषा अलग होगी और किसी वैज्ञानिक शोध-पत्र की अलग। “सरलीकरण” और “सरकारी शब्दकोशीय भाषा” दरअसल दो छोर हैं। ऐसे में अतिरेक से बचकर एक संतुलित रवैया अपनाना बेहतर होगा।
"आज के हिंदी अखबारों में बहुत सारे अंग्रेजी के शब्द ज्यों के त्यों इस्तेमाल" करने के पीछे एक अलग कहानी है। यह संपादकों द्वारा नहीं बल्कि उदारीकरण के बाद समाचार-पत्रों को मिशन नहीं, बल्कि एक माल के रूप में बाज़ार में उतार रहे मालिकान एवं उनके अंग्रेज़ीदां प्रबंधकों का फैसला था और इसे सबसे पहले नवभारत टाइम्स ने अपनाया। हालांकि यह फ़ार्मूला बहुत कामयाब नहीं हुआ। इस बीच इतना अवश्य हुआ है कि बड़े दैनिक समाचार पत्रों या टीवी चैनलों में अब हिंदी की भाषायी शुद्धता का आग्रह लगभग नहीं के बराबर रह गया है।
जहां तक कम पढ़े-लिखे लोगों के कम समझने की बात है तो औपचारिक शिक्षा के अभाव के बावजूद शब्द भंडार व सीखने की ललक के मामले में वे बहुत पिछड़े हैं यह धारणा सही नहीं है। देखा जाए तो शहरी मध्यवर्ग के पास शब्द भंडार कम होता है।
इसे मैं कुछ इस तरह लिखताः "सबक्रॉनिक डर्मल टाक्सिसिटी (अर्थात, सीमित अवधि तक चमड़ी पर लगाने से होने वाले प्रतिकूल प्रभाव)।" कोष्ठक की सामग्री भी बाहर रखी जा सकती है और लिप्यंतरण कोष्ठक में, संदर्भ के अनुसार।
ललित, यहां चर्चा हिंदी के उत्थान पर नहीं है। मैं उसके विरोध में नहीं हूं, वह होना चाहिए। उसका तरीका और मंच कौन से हों, शायद यह एक अलग मुद्दा है। यहां आप एक अनुवादक के तौर पर बाजार में हैं। यहां क्लाइंट ने आपसे कहा है कि उसके ग्राहकों के लिए, जो आम लोग हैं, आप एक दस्तावेज का अनुवाद करें। आप खुद ही कह रहे हैं कि हिंदी का दंभ भरने वाले अधिक हैं और जानने वाले कम। ऐसी स्थिति में क्या यह और भी जरूरी नहीं हो जाता कि जब हम एक आम, कम पढ़े-लिखे व्यक्ति के लिए विशिष्ट तौर पर कोई अनुवाद कर रहे हों तो उसमें हिंदी के कठिन और अप्रचलित वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दों के प्रयोग से बचें?
यथा संभव प्रयास किये जाते हैं और किये जाते रहेंगे कि भाषा और क्लाइंट की जरूरत के बीच सामंजस्य बैठाया जाय। मेरी समझ से यही अनुवादक का काम है। और ललित भाई! अंग्रेजी हमारी मातृ भाषा नहीं है, संपर्क भाषा जरूर है, इसलिये हम अंग्रेज़ी वालों से यह नहीं कह सकते कि सरल लिखो। हमारा काम तो बस उसे अपनी भाषा में सहजता से प्रस्तुत करना है। हाँ आपकी बाकी बातों से मैं सहमत हूँ।
जी हाँ यहाँ स्रोत ही बहुत जटिल है। an existing developmental toxicity study and subchronic dermal toxicity studies बिल्कुल आम बोलचाल या लेखन नहीं है. विञान की भाषा है। ग्राहक से एक प्रश्न पूछने पर यह उत्तर मिला - The acronyms should stay as is (REACH, NOEL, etc.) but please instruct your linguists to use the best option in their target language regarding the translation of the explanation or not.
Example: in some languages, maybe European Chemicals Agency should be left in EN, in others EN (translation) and in others just translation. Please use your best judgement.
तो आप “सही शब्दावली, आदि” के प्रयोग से अनुवाद पर डटे रहेंगे, भले क्लाइंट से यह कहना पड़े कि आप किसी को समझाने के लिए नियुक्त कर लो। क्या हर मामले में ऐसा करना क्लाइंट के लिए व्यावहारिक है? क्षमा करें, मैं ऐसा नहीं कर सकता। और हां, एक अनुवादक के तौर पर, अनुवाद को सरल (कम पढ़े-लिखों के लिए सरलतम) रखना मैं अपना दायित्व मानता हूं। इसके विरोध को अड़ियलपन।
अतिसरलीकरण की आलोचना करने के बावजूद बहुत क्लिष्ट या संस्कृतनिष्ठ हिंदी लिखने का मैं भी पक्षधर नहीं हूं। परंतु हर जगह अनुवादक के रूप में यह चाहत पूरी नहीं हो पाती। तीस-चालीस साल पुराने शब्दकोश हैं। समय के हिसाब से आसान शब्द ढूंढने, उनका अद्यतन करने जैसे काम नहीं हुए हैं। ऐसे में अनुवादक कहां से नए शब्दों का सृजन करे। हरेक इतना प्रतिभाशाली भी नहीं होता कि बिना शब्दकोश देखे ही अनुवाद कर दे। एक बात यह भी कि अनुवादक के हाथ में ही सब कुछ नहीं होता। जिस तरह की भाषा की अपेक्षा होती है उसी अनुसार उसे अनुवाद करना होता है। पर जब सोर्स टेक्स्ट ही बोलचाल की भाषा में नहीं है तो हिंदी अनुवादक से बोलचाल की भाषा की अपेक्षा क्यों?
मजे की बात यह है कि यह "सनक" हिंदी भाषा के लिए ही होती है। अंग्रेज़ी के लिए कोई हिंदुस्तानी नहीं कहता कि भइया थोड़ी सरल अंग्रेज़ी लिख दिया करो, अंग्रेज़ भले टोकते हों। लौहपथगामिनी कहकर हिंदी की मजाक बनाने वाले प्रबुद्धों के मुंह से मैंने कभी भी कठिन अंग्रेज़ी की आलोचना नहीं सुनी। दरअसल इस देश में हिंदी सीखना-पढ़ना मजबूरी का काम होता है। कितने घर हैं जिनमें हिंदी साहित्य होता है और हिंदी के शब्दकोश होते हैं। जितनी कड़ी मेहनत अंग्रेज़ी सीखने के लिए की जाती है, उसकी तुलना में हिंदी की स्थिति देखें। कोई हिंदी बोलना भर जानता है तो वह मानके चलता है कि वह हिंदी का विद्वान है। हिंदी शब्दकोश के नाम पर मुंह बिचकाने का फ़ैशन इसी देश में है। कहां हैं हिंदी के थिसारस? कितने हैं जो हिंदी के दस कहानीकारों, दस कवियों के नाम भी गिना सकें, पढ़ने की तो बात दूर की है। एक कुप्रचार/मिथक/पूर्वाग्रह है कि कठिन हिंदी के कारण सब गड़बड़ होती है।
हमेशा सरल-सरल ही होता तो धन्यवाद, क्षमा, आभार जैसे शब्द भी हिंदी में नहीं आ पाते, बाकी की तो बात छोड़िए। जब एकदम शुरू में धन्यवाद शब्द आया होगा तो कितना कठिन रहा होगा।
भारत जैसे माहौल में 40-50 फीसदी तक लोग निरक्षर होते हैं? इनके लिए भाषा को जितना भी सरल रखा जाए, दस्तावेज़ समझ के बाहर की चीज़ ही होगी। क्लाइंट को पैसा अन्य माध्यमों पर भी खर्च करना ही पड़ेगा। जैसे लिखित दस्तावेज़ को बोलचाल की भाषा में रोगी को समझाने के लिए किसी को नियुक्त करना। यदि ऐसा किया जाए, तो दस्तावेज़ को सही तरह से अनुवाद किया जा सकेगा - यानी सही शब्दावली आदि के प्रयोग से अनुवाद। दूसरी बात यह कि आजकल चिकित्सा शास्त्र इतना जटिल और प्रौद्योगिकीय दृष्टि से उन्नत हो चुका है कि उसकी अनेक अवधारणाएँ अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को भी समझ में नहीं आती हैं। इनका सरलीकरण कैसे किया जाए? इसलिए मैं मानता हूँ, अनुवाद को सरल रखने को एक फेटिश (सनक) में बदलना भी उतना ही बुरा मर्ज है।
जहां क्लाइंट अनुवाद पर पैसे खर्च करता है वह उम्मींद करता है कि आप उसके लक्षित वर्ग तक उसकी बात को यथासंभव पहुंचाने का प्रयास करेंगे। यहां भाषा सौंदर्य उसके लिए प्राथमिकता नहीं होती। अगर ऐसा होता तो आज के हिंदी अखबारों में बहुत सारे अंग्रेजी के शब्द ज्यों के त्यों इस्तेमाल नहीं किए जाते। भाषा सौंदर्य का समावेश हो जाए तो हो जाए, अच्छा है, लेकिन क्लाइंट उसे इस कीमत पर सहन नहीं करेगा कि वह लक्षित लोगों द्वारा बात को समझे जाने में रुकावट बने। अगर भाषा सौंदर्य लक्षित लोगों द्वारा बात को समझने में अड़चन डालेगा तो उसकी बलि दी जाएगी, ऐसा मेरा अनुभव है। यदि हम भाषा सौंदर्य पर अड़े रहे और क्लाइंट की बात नहीं मानी तो संभव है वह हमें ही बदल दे और शायद बताए भी नहीं। मैं भाषा सौंदर्य का विरोधी कतई नहीं हूं लेकिन आम लोगों के लिए तैयार किए जाने वाले दस्तावेजों में वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली से कठिन एवं अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करता। पहले ही कह चुका हूं, पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद में मैं इन शब्दों से परहेज नहीं करूंगा।
आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ। पर यहाँ संतुलन रखना आवश्यक है। भारत जैसे देश में जहाँ 40 प्रतिशत आबादी अभी तक निरक्षर है और 20-30 प्रतिशत आबादी नाममात्र के लिए ही शिक्षित है, वहाँ लिखत दस्तावेज़ों को उस स्तर तक सरल बनाना जिस स्तर पर वह सबको समझ में आए, असंभव है। इसीलिए भारत में लिखित सामग्री की पहुँच सीमित ही मानी जाएगी और उसके साथ अन्य माध्यमों का उपयोग भी आवश्यक रहेगा। रेलवे स्टेशनों में इसीलिए शौचालय आदि में चित्र लगाए जाते हैं, लिखित संदेश नहीं। शायद यह आईनस्टाइन ने कहा था कि बात को सरल तो बनाना चाहिए, पर सरलीकृत नहीं। कहने का मतलब यह कि सरल बनाने की सनक में बात को ही बिगाड़कर नहीं रख देना चाहिए। जैसे स्किन डाक्टर की आवश्यकता वाला रोगी आपसे पूछकर, न कि लिखित संदेश पढ़कर, अपना मकसद निकाल सका, उसी तरह लिखित संदेश को ठीक से न समझ सकनेवाले रोगियों को अन्य जरिए से जानकारी प्राप्त करनी होगी। अनुवाद करते समय सरलता एक सराहनीय गुण है, पर सटीकता, सही शब्द-प्रयोग और भाषायी सौंदर्य भी वांछनीय गुण होते हैं। केवल सरलता की डोरी पकड़े रहने से बात एकांगी हो जाएगी।
दूसरी ओर, पाठ्यपुस्तकों का अनुवाद करते समय तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावलियों के कठिन लगने वाले शब्द भी प्रयोग किए जा सकते हैं क्योंकि वहां पर भाषा का स्तर बनाए रखा जाना चाहिए और छात्र जब बार-बार, कक्षा-दर-कक्षा उन्हीं शब्दों को पढ़ते और दोहराते जाते हैं तब वे कठिन नहीं रह जाते। शायद इसी काम के लिए ये शब्दावलियां अधिक उपयुक्त हैं। दूसरी ओर, एक आम आदमी के लिए, जिसका शिक्षा का स्तर भी अधिक न हो, ऐसे शब्द इस्तेमाल नहीं किए जाने चाहिए। उन्हें सरल से सरल बनाकर आम भाषा में पेश किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब क्लीनिकल ट्रायल्स से संबंधित दस्तावेजों का अनुवाद सब्जेक्ट्स की जानकारी और सहमति के लिए किया जा रहा हो तो हमें सरल से सरल शब्द ही इस्तेमाल करने चाहिए क्योंकि इनमें शामिल होने वाले रोगी या वालंटियर का शैक्षिक स्तर बहुत कम भी हो सकता है और कठिन शब्द देखकर वे तो उलझ ही सकते हैं, साथ ही डॉक्टर को भी उनकी मदद करने में मुश्किल होगी। इससे बेहतर है कि हम लिप्यंतरण ही कर दें ताकि कम से कम डॉक्टर तो उन्हें समझा सके। यही बात बीमारियों की जानकीरी देने वाले उन दस्तावेजों पर भी लागू होती है जो आम आदमी को लक्ष्य बनाकर तैयार किए जाते हैं। ऐसा कई बार हुआ जब किसी क्लाइंट से मुझे फीडबैक आई कि आप “रक्त शर्करा” की जगह “ब्लड शुगर”, “मधुमेह” की जगह “डायबीटीज” या “शुगर की बीमारी” लिखें। यानी, संदर्भ महत्वपू
यह सवाल महत्वपूर्ण होता है जब हम अनुवाद करते हैं। अनुवाद कराने वाले क्लाइंट के टार्गेट ऑडीएन्स कौन लोग हैं इस बात को ध्यान में रखना अति आवश्यक है। तभी अनुवाद का उद्देश्य हासिल होगा। हर जगह हम तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावलियों का संदर्भ देकर कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते। कठिन शब्दों की तो बात बहुत दूर, कभी-कभी सरल से प्रतीत होने वाले शब्द भी बहुत कठिन साबित हो सकते हैं। दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल की घटना जो मेरे सामने घटी – अस्पताल में हमेशा की तरह बहुत भीड़ थी। नंबर लेने की हर विंडो पर अंग्रेजी और हिंदी में साफ नजर आने वाली पर्चियां चिपकाई गई थीं। जैसे Eye OPD – नेत्र ओपीडी, Dental – दंतचिकित्सा, Dermatology – त्वचारोग, आदि। कोशिश यही थी कि हर व्यक्ति को अपनी इलाज वाली खिड़की आसानी से दिखाई दे जाए। एक व्यक्ति जो परेशान दिखाई दे रहा था, मेरे पास आकर पूछने लगा कि भाई साहब यहां क्या “स्किन” वाली विंडो नहीं है। जाहिर है उसके लिए दोनों ही शब्द मुश्किल थे त्वचारोग भी और Dermatology भी। शायद “चर्मरोग” या “चमड़ी के रोग” या “स्किन” लिखने से उसे समझ में आ जाता। एक सरल से लगने देने वाले शब्द ने एक रोगी को काफी परेशान किया।
आशुतोष जी, विषालुता भी मेरे विचार से सही है। यह गलत नहीं है। लेकिन मैंने केवल एक संदर्भ दिया कि विज्ञान के शब्दकोश में आविषालुता दिया है। बस इतनी सी ही बात थी ;)
यदि आम जन के लिए कोई प्रचार सामग्री जैसा कुछ हो तो मैं इसे हो सकता है "चमड़ी में कम समय का जहरीलापन" जैसा कुछ लिखूं।
गरिष्ठता के साथ सामान्य रूप से उपयोग की बात भी है जो मैं लिखना भूल गया...विषाक्तता ..आविषालुता से अधिक प्रयोग किया जाता है...बस इतना ही, वरना मेरा विषालुता का प्रयोग तो गलत ही था..इसे आविषालुता होना चाहिये था।
सहमत तो मैं भी आशुतोष जी से हूं कि गरिष्ठता जितनी कम उतनी अच्छी। लेकिन वर्तमान संदर्भ में लौहपथगामिनी का उदाहरण देने लगना बात को खींचकर दूसरे सिरे पर ले जाना है। वरना जनता तो विषाक्तता भी नहीं बोलती है। जहरीलापन बोलती है। सरकारी शब्दकोशों का अपना महत्व है, तमाम कमियों के बावजूद। तकनीकी अनुवाद या विज्ञान संबंधी सामग्री में और पॉपुलर साहित्य में अंतर होता है। हर जगह सरलतावाद का झंडा उठाने से बात बनती नहीं है। विषालुता सरल है और आविषालुता लौहपथगामिनी सदृश है, तर्क गले नहीं उतरता।
और यह भी कि, सामान्य बातचीत और विज्ञान के किसी आलेख की भाषा में अंतर होता है। अनुवादकों को उसी अनुसार भाषा बरतनी होती है। सरल, संप्रेषणीय भाषा की इच्छा हमेशा पूरी हो जाए, ऐसा कम से कम मेरे जैसे आम अनुवादक के साथ तो नहीं हो पाता।
आशुतोष जी, मैं आपसे सहमत हूँ । इसलिए मैने विषालुता शब्द का प्रयोग किया था । लेकिन ललित जी की आपत्ति के कारण वापस लिया। सामान्य बातचीत मे toxic के लिेए जहरीला या विषाक्त ही का प्रयोग मैं या हम सभी हिन्दी भाषी करते हैं। इस तरह के शब्द साधारणतया सरकारी शब्द कोषों मे ही मिलते हैं जिनका प्रयोग शायद ही कोई सामानय बातचीत में करता है। जैसे रेलगाड़ी के लिए लौह पथ गामिनी अग्नि रथ शायद ही कोई प्रयोग करता है।
माफ करियेगा... मैने विषालुता शब्द आशीष जी के अनुवाद से ले लिया...हालांकि मैं सरकारी शब्दावलियों का प्रयोग निजी तौर पर नहीं करता क्योंकि वे अनुवाद को नाहक ही गरिष्ठ कर देती है... इसीलिये विषाक्तता का विकल्प भी दिया है।
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